स्वर और व्यंजन (Hindi Swar and Vyanjan) | Vowels and Consonants in hindi

इस लेख में हम हिंदी वर्णमाला स्वर और व्यंजन (Hindi Swar and Vyanjan PDF) | Vowels and Consonants in hindi के बारे में अध्ययन करेंगे और स्वर और व्यंजन से जुड़े विभिन सवालो जैसे स्वर किसे कहते है ? व्यंजन किसे कहते है ? हिंदी वर्णमाल में स्वर और व्यंजन होते है आदि के जवाब देने का यहा प्रयास किया गया है।

वर्ण-विचार (Vowels and Consonants in hindi)

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  • भाषा के दो रूप होते हैं- 1. मौखिक या उच्चरित भाषा 2. लिखित भाषा।
  • मौखिक भाषा की सूक्ष्मतम इकाई ध्वनि तथा लिखित भाषा की सूक्ष्मतम इकाई वर्ण होती है।
    वास्तव में ध्वनि का संबंध सुनने व बोलने से है तो वर्ण का संबंध लिखने व देखने से है। वर्ण ध्वनि रूपी आत्मा का शरीर है।
  • भाषा का मूल रूप मौखिक होता है। मौखिक भाषा उच्चारण पर आधारित होती है।
    उच्चारण करने के लिए मानव के जो मुख-अवयव काम आते हैं, वे उच्चारण-अवयव कहलाते हैं।
    फेफड़ों से निकलने वाली प्राणवायु सबसे पहले प्रयत्न करने पर गले में स्थित स्वरयंत्र को झंकृत करती है।
    फिर वह नासिका या मुख के विभिन्न स्थानों या अंगों का स्पर्श करती हुई ध्वनि का रूप धारण करती है।
    अतः स्वरतंत्री, काकल, मुख, नासिका, जिह्वा आदि उच्चारण-अवयव हैं और मुख से निकली ध्वनि ‘वर्ण‘। ‘वर्ण‘ भाषा की छोटी से छोटी ध्वनि है।
    वह मूल ध्वनि है। मानव के मुख में विभिन्न उच्चारण स्थान हैं, जिनसे टकराकर ध्वनि भिन्न-भिन्न रूप बदलती है।
    जैसे- दंत, ओष्ठ, तालु, मूर्धा, कंठ आदि। ये उच्चारण स्थान कहलाते हैं।
  • ध्वनि और वर्ण का संबंध- ध्वनि शब्दों की आधारशिला है, जिसके बिना शब्द की कल्पना नहीं की जा सकती।
    अ, आ, इ, ई आदि जब मनुष्य की वागिन्द्रिय द्वारा व्यक्त होते हैं तब वे ध्वनियाँ कहलाती हैं।
    इनके लिखित रूप को ‘वर्ण’ कहते हैं। वर्ण को ‘ध्वनि-चिह्न भी कहते हैं अंग्रेजी के Cat और हिन्दी के ‘केट’ में ध्वनिगत भेद नहीं हैं, क्योंकि दोनों भाषाओं में एक ही तरह की ध्वनियाँ हैं।
    लेकिन लिखने में दोनों की ध्वनियों के चिह्न एक-दूसरे से भिन्न हैं।
    इस प्रकार हम देखते हैं कि इनमें ध्वनि-भेद तो नहीं, पर वर्ण-भेद अवश्य है।
    ध्वनि बोलने और सुनने में आती है, लेकिन वर्ण लिखने, पढ़ने और देखने में आता हैं। अतएव, लघुत्तम वाग्-ध्वनि को ‘वर्ण’ कहते हैं।

हिंदी वर्णमाला और वर्ण (Hindi Varnmala Swar and Vyanjan)

प्रत्येक भाषा की मूल ध्वनियों को लिखने के लिए कुछ ध्वनि-चिह्न निश्चित किए जाते हैं। उन ध्वनि-चिन्हों को ‘लिपि-चिन्ह या ‘वर्ण’ कहते हैं। ऐसे वर्ण़ों के व्यवस्थित समूह को ‘वर्णमाला’ कहते हैं ।

ध्वनि की परिभाषा :-

फेफड़ों द्वारा निःत हवा जब उच्चारण अवयवों का सहयोग पाकर मुख-विवर से बाहर निकलती है, तब ध्वनि का निर्माण होता है।
‘ध्वनि’ मौखिक भाषा की सूक्ष्मतम इकाई है। प्रत्येक ध्वनि के लिए जो लिपि चिह्न (प्रतीक) होता है, उसे ‘अक्षर’ या ‘वर्ण’ कहते हैं।
ध्वनि या वर्ण दो प्रकार के होते हैं-
(1) स्वर ध्वनि

(2) व्यंजन ध्वनि

(1) स्वर ध्वनि (Swar iN Hindi)

स्वर किसे कहते है ?

फेफड़ों द्वारा निःसृत हवा जब उच्चारण अवयवों का सहयोग पाकर अबाध गति अर्थात् बिना किसी रूकावट के मुख-विवर से बाहर आये, तब स्वर ध्वनियों का निर्माण होता है। हिन्दी में अ से औ तक कुल 11 स्वर माने गए हैं। स्वरों का स्वतंत्र उच्चारण संभव है। स्वरों की मात्रााएं होती हैं।

स्वर (swar in hindi) (कुल-11) :
(1) हस्व स्वर/मूल/लघु/एकमात्रिक स्वर (4) – अ, इ, उ, ऋ

(2) दीर्घ स्वर/गुरु/संधि/द्विमात्रिक स्वर (7) – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ

स्वरों के भेद (Types of Vowels in Hindi)

प्रयत्न, मुखाकृति, ओष्ठाकृति, उच्चारण-समय, उच्चारण-स्थान और स्रोत के आधार पर स्वरों के निम्नलिखित भेद किए जाते हैं-

1. प्रयत्न/जीभ के प्रयोग के आधार पर :

(क) अग्र स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र (आगे का) भाग सक्रिय रहता है, उन्हें ‘अग्र स्वर‘ कहते हैं। जैसे- इ, ई, ए, ऐ।

(ख) मध्य स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग सक्रिय रहता है, उन्हें ‘मध्य स्वर‘ कहते हैं। जैसे- ‘अ‘।

(ग) पश्च स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का पिछला भाग सक्रिय रहता है, उन्हें ‘पश्च स्वर‘ कहते हैं। जैसे- आ, उ, ऊ, ओ, औ, ऑ।

2. मुखाकृति/जीभ के उठने के आधार पर :

(क) संवृत स्वर- संवृत का अर्थ है- कम खुला हुआ। जिन स्वरों के उच्चारण में मुख कम खुले, उन्हें संवृत स्वर कहते हैं। जैसे- इ, ई, उ, ऊ।

(ख) अर्द्धसंवृत स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में मुख संवृत स्वर से थोड़ा अधिक खुलता है, वे अर्द्धसंवृत स्वर कहलाते हैं। जैसे- ए, ओ।

(ग) अर्द्धविवृत स्वर- विवृत स्वर से थोड़ा कम और अर्द्धसंवृत से थोड़ा अधिक मुख खुलने पर जिन स्वरों का उच्चारण होता है, उन्हें अर्द्धविवृत स्वर कहते हैं। जैसे-अ, ऐ, औ।

(घ) विवृत स्वर- विवृत का अर्थ है- अधिक खुला हुआ। जिन स्वरों के उच्चारण में मुख बहुत अधिक खुलता है, उन्हें विवृत स्वर कहते हैं। जैसे-आ।

3. ओष्ठाकृति के आधार पर :

(क) वृत्तमुखी स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठों का आकार गोल हो जाता है, उन्हें वृत्ताकार या वृत्तमुखी स्वर कहते हैं। जैसे- उ, ऊ, ओ, औ।

(ख) अवृत्तमुखी स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ (ओष्ठ) गोल न खुलकर अन्य किसी आकार में खुलें, उन्हें अवृत्तमुखी स्वर कहते हैं। जैसे- अ, आ, इ, ई, ए, ऐ।

4. उच्चारण-समय (मात्रा) के आधार पर :

(क) हृस्व स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में एक मात्रा का समय अर्थात् सबसे कम समय लगता है, उन्हें हृस्व स्वर कहते हैं। जैसे- अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर हैं।

(ख) दीर्घ स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में दो मात्राओं का या एक मात्रा से अधिक समय लगता है, उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। जैसे-आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, दीर्घ स्वर हैं।

(ग) प्लुत स्वर- जिस स्वर के उच्चारण में सामान्य से तिगुना समय लगे, उसे ‘प्लुत‘ या ‘त्रिमात्रिक‘ स्वर कहते हैं। ये कोई अलग से स्वर नहीं होते हैं, दीर्घ स्वर के पश्चात् सामान्यतः ३ या ऽ का चिह्न लगाकर बनाया जाता है। यथा- ‘ओ३म‘, ‘राऽम‘।

5. उच्चारण-स्थान के आधार पर :

(क) अनुनासिक स्वर- इन स्वरों के उच्चारण में ध्वनि मुख के साथ-साथ नासिका-द्वार से भी निकलती है। अतः अनुनासिकता को प्रकट करने के लिए शिरोरेखा के ऊपर चंद्रबिंदु ( ँ ) का प्रयोग किया जाता है। परन्तु जब शिरोरेखा के ऊपर स्वर की मात्रा भी लगी हो तो सुविधा के लिए (स्थानाभाव के कारण) चंद्रबिंदु ( ँ ) की जगह मात्र बिंदु ( ॱ ) लगा दिया जाता है। जैसे- कहीं, मैं, हैं, आँखें।

(ख) निरनुनासिक स्वर- निरनुनासिक स्वर वे हैं जिनकी ध्वनि केवल मुख से निकलती है। जैसे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

अनुनासिक ( ँ ) और अनुस्वार ( ॱ ) में अन्तर : अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे – आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि। पर अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे – अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि। अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात् अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है। अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है; जैसे – अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत।

6. स्रोत के आधार पर :

(क) मूल स्वर- स्वतंत्र स्वर ‘मूल स्वर‘ कहलाते हैं। जैसे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ।

(ख) संयुक्त स्वर- ये स्वर दो असवर्ण स्वरों के मेल से बनते हैं। जैसे- ए (अ + इ), ऐ (अ + ए), ओ (अ + उ), औ (अ + ओ)।

कुछ नियम : 1. किसी भी व्यंजन को स्वर रहित बनाने के लिए ‘हल्‘ चिह्न का प्रयोग किया जाता है, यदि खड़ी पाई वाला व्यंजन हो तो उसकी खड़ी पाई हटाकर भी उसे स्वर रहित बनाया जा सकता है। जैसे-
क – अ = ‘क्‘
या
‘क्‘, ट – अ = ‘ट्‘।

  1. ‘र‘ के साथ ‘उ‘ की मात्रा लगाकर ‘रु‘ बनता है।
  2. ‘र‘ के साथ ‘ऊ‘ की मात्रा लगाकर ‘रू‘ बनता है।
  3. ‘ऐ‘ की जगह ‘ऐ‘ का प्रयाग गलत है। जैसे- एैतिहासिक की जगह ऐतिहासिक होना चाहिए।

बलाघात/स्वराघात : शब्द बोलते समय अर्थ या उच्चारण की स्पष्टता के लिए जब हम किसी अक्षर पर विशेष बल देते हैं, तब इस क्रिया को स्वराघात या बलाघात कहते हैं। सामान्यतः यह बल संयुक्त अक्षर के पहले अक्षर पर लगता है। जैसे – इन्द्र, विष्णु। इनमें संयुक्त अक्षर से पहले के अक्षर ‘इ’ और ‘वि’ पर जोर दिया गया है।

(2) व्यंजन ध्वनि (Vyanjan in Hindi)

व्यंजन किसे कहते है ?

फेफड़ों द्वारा निःसृत जब यह हवा किसी न किसी स्तर पर रुकावट के साथ मुख-विवर से बाहर निकलती है, तब व्यंजन(vyanjan in Hindi) ध्वनियों का निर्माण होता है। हिन्दी में क से ह तक कुल 33 व्यंजन (25 स्पर्शी + 4 अन्तःस्थ + 4 ऊष्मीय) माने गए हैं। व्यंजन ध्वनियों का स्वतंत्र उच्चारण संभव नहीं है। इनका उच्चारण स्वरों; मात्राओंद्ध की सहायता से किया जाता है।

व्यंजन (vyankan in hindi) (कुल-33) :
(1) स्पर्शी या वर्गीय व्यंजन (25) –

क वर्ग – क, ख, ग, घ, ङ (कण्ठ्य)

च वर्ग – च, छ, ज, झ, ञ (तालव्य)

ट वर्ग – ट, ठ, ड, ढ़, ण (मूर्द्धन्य)

त वर्ग – त, थ, द, ध, न (दन्त्य)

प वर्ग – प, फ, ब, भ, म (ओष्ठ्य)

(2) अन्तस्थ व्यंजन/अर्द्ध स्वर (4) – य, र, ल, व

(3) ऊष्म व्यंजन/संघर्षी (4) – श, ष, स, ह

संयुक्त व्यंजन (4) – क्ष (क्ष), त्र (त्र), ज्ञ (ज्ञ), श्र (श्र)

द्विगुण व्यंजन/उक्षिप्त (2) – ड़, ढ़

अयोगवाह (2) – अं, अः

यद्यपि ‘ऋ‘ को लिखित रूप में स्वर माना जाता है परन्तु इसका मूल ध्वनि ‘इ’ व ‘उ’ के मध्य की थी, परन्तु अब मानक हिन्दी में इसका उच्चारण ‘इ‘ (रि) की तरह होता है। हिन्दी में केवल तत्सम शब्दों में ही इसका प्रयोग होता है।
आजकल अंग्रेजी के प्रभाव से (ऑ) ध्वनि हिन्दी में अपनी जगह बना चुकी है। इसका लिपि चिन्ह ( ाॅ ) है। यह हिन्दी के आ और ओ के बीच की ध्वनि है।

जिन ध्वनियों का उच्चारण करते हुए हमारी श्वास-वायु मुख के किसी भाग (तालु, ओष्ठ, दाँत, वर्त्स आदि) से टकराकर बाहर आती है तथा जिन्हें स्वरों की सहायता से बोला जाता है, उन्हें व्यंजन कहते हैं। देवनागरी वर्णमाला में मूलतः 33 व्यंजन हैं। दो व्यंजन ‘ड़‘ और ‘ढ़‘ क्रमशः ‘ड‘ और ‘ढ‘ से विकसित हुए हैं। कुछ व्यंजन अरबी-फारसी के प्रभाव से आए हैं। प्रत्येक व्यंजन का उच्चारण स्थान और प्रयत्न का प्रकार भिन्न है।

व्यंजनों का वर्गीकरण (Types of Consonants in hindi)

व्यंजनों को उच्चारण की दृष्टि से दो आधारों पर विभाजित किया जाता है-

1 . उच्चारण स्थान के आधार पर (स्पर्शी व्यंजन)-

जन ध्वनियों का उच्चारण करते समय हमारी श्वास- वायु किसी न किसी मुख अवयव से टकराती है। उस अवयव को व्यंजन का उच्चारण स्थान कहा जाता है। मुख के ऐसे स्थल हैं- कंठ, मूर्धा, तालु, वर्त्स, दाँत, होंठ। इन्हीं के आधार पर व्यंजनों का निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है- काकल्य/अलिजिह्वा/स्वरयंत्र – ह कंठ्य (गले से) क, ख, ग, घ, ङ, ह तालव्य (तालु से) च, छ, ज, झ, ञ, य और श मूर्धन्य (मूर्धा से) ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र तथा ष दंत्य (दांतों के मूल से) त, थ, द, ध, न, ल (वर्त्स्य) तथा स (वर्त्स्य) ओष्ठ्य (दोनों होंठों से) प, फ, ब, भ, म दंतोष्ठ्य (निचले होंठ और ऊपर के दाँतों से) व

स्वरों के उच्चारण स्थल- अ, आ- कण्ठ्य; इ, ई- तालव्य; उ, ऊ- ओष्ठ्य; ऋ- मूर्धन्य; ए, ऐ- कण्ठतालव्य; ओ, औ- कण्ठोष्ठ्य।

2 . प्रयत्न-

ध्वनियों के उच्चारण में होने वाले यत्न को ‘प्रयत्न‘ कहा जाता है। यह प्रयत्न तीन प्रकार से होता है- (i) स्वरतंत्री में कम्पन के रूप में। (ii) श्वास-वायु की मात्रा के रूप में। (iii) मुख-अवयवों द्वारा श्वास को रोकने के रूप में।

(i) स्वरतंत्री में कम्पन- स्वरतंत्रियों में होने वाली कम्पन, नाद या गूँज के आधार पर व्यंजनों के दो भेद किए जाते हैं- घोष और अघोष।

नाद की दृष्टि से जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत होती है अथवा उच्चारण में भारीपन रहता हैं, वे घोष ध्वनियाँ और जिनमें ऐसी झंकृति नहीं रहती तथा उच्चारण में भारीपन नहीं रहता, वे अघोष ध्वनियाँ कहलाती हैं। ‘घोष’ में केवल नाद का उपयोग होता है, जबकि ‘अघोष’ में केवल श्वास का।
अघोष वर्ण – वर्गीय व्यंजनों के पहले व दूसरे व्यंजन (क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ) तथा श, ष, स।
घोष/सघोष वर्ण – वर्गीय व्यंजनों का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ व्यंजन (ग, घ, ड; ज, झ, ञ; ड, ढ, ण; द, ध, न; ब, भ, म), अन्तःस्थ (य, र, ल, व) तथा ह। सभी स्वर भी घोष वर्ण होते हैं।

(ii) श्वास-वायु की मात्रा- उच्चारण में वायुप्रक्षेप या श्वास वायु की मात्रा की दृष्टि से व्यंजनों के दो भेद हैं – (1) अल्पप्राण (2) महाप्राण।

अल्प्रपाण- जिनके उच्चारण में श्वास मुख से अल्प मात्रा में निकले और जिनमें ‘हकार’ – जैसी ध्वनि नहीं होती, उन्हें अल्पप्राण ध्वनियाँ कहते हैं। प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं। जैसे – क, ग, ङ; च, ज, ञ; ट, ड, ण; त, द, न; प, ब, म, । अन्तःस्थ (य, र, ल, व) तथा सभी स्वर भी अल्पप्राण ही हैं।
महाप्राण- महाप्राण व्यंजनों के उच्चारण में ‘हकार’ -जैसी ध्वनि विशेषरूप से रहती है और श्वास अधिक मात्रा में निकलती है। प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण है। जैसे – ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह।
संक्षेप में अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता है।

(iii) मुख- अवयवों द्वारा श्वास का अवरोध-ध्वनियों का उच्चारण करते समय हमारी जीभ या अन्य मुख अवयव अनेक प्रकार से प्रयत्न करते हैं। इस आधार पर व्यंजनों का निम्नलिखित विभाजन किया जाता है-

  • स्पर्शी व्यंजन- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसीलिए से इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। इन्हें हम ‘वर्गीय व्यंजन’ भी कहते हैं; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं। इस जाति के पाँच-पाँच व्यंजनों के पाँच वर्ग बना लिए गये हैं। उदाहरणार्थ –
  • नासिक्य- जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय मुख-अवयव वायु को रोकते हैं; परन्तु वायु पूरी तरह मुख से न निकल कर नाक से भी निकलती है, उन्हें नासिक्य व्यंजन कहते हैं। ङ, ञ, ण, न, म नासिक्य व्यंजन हैं।
  • स्पर्श-संघर्षी- जिन व्यंजन के उच्चारण में वायु पहले किसी मुख-अवयव से स्पर्श करती है, फिर रगड़ खाते हुए बाहर निकलती है, उन्हें स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहते हैं। च, छ, ज, झ स्पर्श संघर्षी व्यंजन है।
  • संघर्षी- जिन व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पन्न ऊष्म वायु से होता हैं, उन्हें ऊष्म व्यंजन कहते हैं। ये चार हैं – श, ष, स, ह। इन्हें संघर्षी व्यंजन भी कहते हैं।
  • उक्षिप्त- उक्षिप्त का अर्थ है- उछाला हुआ या फैंका हुआ। जिन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ का अग्र भाग मूर्धा को स्पर्श करके झटके से वापस आता है, उन्हें उक्षिप्त/उश्रिप्प/द्विगुण व्यंजन कहते हैं। ड़, ढ़ उक्षिप्त व्यंजन है।
अंतःस्थ-स्वरों और व्यंजनों के मध्य स्थित होने के कारण य, र, ल, व को अंतःस्थ व्यंजन कहा जाता है। इनके उच्चारण में वायु का अवरोध बहुत कम होता है। कई विद्वान अंतःस्थ व्यंजनों का विभाजन निम्न प्रकार से करते हैं
  • पार्श्विक- पार्श्विक का अर्थ है- बगल का। जिस ध्वनि के उच्चारण में जिह्वा श्वास वायु के मार्ग में खड़ी हो जाती है और वायु उसके अगल-बगल से निकल जाती है, उसे पार्श्विक व्यंजन कहते हैं। ‘ल‘ पार्श्विक है।
  • प्रकंपित- प्रकंपित का अर्थ है- काँपता हुआ। जिस व्यंजन के उच्चारण में जिह्वा की नोक वायु से रगड़ खाकर काँपती रहती है, उसे प्रकंपित व्यंजन कहते हैं। ‘र‘ प्रकंपित व्यंजन है।
  • लुण्ठित- ‘र‘ को लुण्ठित व्यंजन कहते हैं क्योंकि ‘र‘ के उच्चारण में जिह्वा लुढ़ककर स्पर्श करती है अर्थात् जिह्वा लुण्ठा करती है।
  • अर्द्धस्वर- हिन्दी में य, व ऐसी ध्वनियाँ हैं जो न तो पूर्ण रूप से स्वर है, न पूर्णरूपेण व्यंजन। इनके उच्चारण में श्वास वायु को रोकने के लिए उच्चारण-अवयव प्रयत्न तो करते हैं, लेकिन वह प्रयत्न न के बराबर होता है। अतः ये ध्वनियाँ लगभग अवरोध-रहित निकल जाती हैं।

अनुनासिक वर्ण :-

  • हिन्दी में अनुनासिक वर्णों की संख्या पाँच है – ङ, ञ, ण, न और म। ये पंचमाक्षर कहलाते हैं। संस्कृत के अनुसार शब्द का अन्तिम अक्षर जिस वर्ग का हो, उसके पहले उसी वर्ग का पंचमाक्षर प्रयुक्त होता है। जैसे – कवर्ग - अङ्क चवर्ग - चञ्चु टवर्ग - खण्ड तवर्ग - सन्धि पवर्ग - दम्भ हिन्दी में उपर्युक्त पंचमाक्षरों का प्रयोग अब निम्नलिखित प्रकार से होता है। अङ्क - अंक, चञ्चु - चंचु, खण्ड - खंड, सन्धि - संधि, दम्भ - दंभ,।

संयुक्त व्यंजन- मानक हिन्दी वर्णमाला में कुल 4 संयुक्त व्यंजन हैं- क्ष (क् + ष), त्र (त् + र), ज्ञ (ज् + ञ), श्र (श् + र)।

  • दो या दो से अधिक व्यंजनों के संयोग से संयुक्त ध्वनियाँ बनती हैं। हिन्दी में स्वर-रहित व्यंजन को आगे वाले व्यंजन से मिला दिया जाता है। कुछ नियम देखिए-

(क) खड़ी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप बनाने के लिए पाई को हटा दिया जाता है। उदाहरणतया-

  ख्याति (ख् + य = ख्य), लग्न (ग् + न = ग्न), विघ्न (घ् + न = घ्न), नगण्य (ण् + य = ण्य)

  पथ्य (थ् + य = थ्य), ध्वनि (ध् + व = ध्व), न्यास (न् + य = न्य)

 अन्य उदाहरण- शय्या, उल्लेख, भव्य, श्लोक, राष्ट्रीय, स्वीकृत, यक्ष्मा, त्र्ंबक।

(ख) क और फ के संयुक्ताक्षर बनाते समय इनका पीछे वाला भाग हटा दिया जाता है, उदाहरणतया-

        पक्का (क् + का = क्का)            रफ्तार (फ् + ता = फ्ता)।

नए नियमों के अनुसार ‘पक्का‘ की जगह ‘पक्का‘ का प्रयोग नहीं होना चाहिए।

(ग) बिना पाई वाले व्यंजनों (ट्, ठ्, ड्, ढ्, द्, ह्, ङ्) के संयुक्ताक्षरों में हल् चिह्न का प्रयोग होना चाहिए। उदाहरणतया-

  ङ् + म = वाङ्मय             ट् + य = पाठ्य

  ट् + ट = लट्टू                द् + य = विद्यार्थी

  ह् + म = ब्रह्म                 ड् + ढ = बुड्ढा

  उपर्युक्त रूपों को लट्टू, बुड्ढा के रूप में नहीं लिखना चाहिए।

(घ) हिन्दी में ‘र‘ वर्ण के अनेक रूप हैं। यदि ‘र‘ से पूर्व कोई हल व्यंजन हो तो यह उसके नीचे प्रयुक्त होता है। यथा-

        प्रकाश (प् + र = प्र), प्रयोग

        ग्रास (ग् + र = ग्र), प्रात

        क्रम (क् + र = क्र), भ्रम, व्रत, वज्र

(i) यदि ‘र‘ हल् हो तो यह अपने से आगे वाले व्यंजन के सिर पर सवार हो जाता है। जैसे-

        धर्म = (र् + म = र्म), अर्थ आदि।

(ii) बिना पाई वाले हल् व्यंजनों के साथ ‘र‘ का रूप इस प्रकार हो जाता है-

        (ट् + र = ट्र) ट्रेन, ड्रम, राष्ट्र।

(iii) श् के साथ ‘र‘ मिलाने से ‘श्र‘ रूप बन जाता है।

(iv) त् के साथ ‘र‘ के दो रूप प्रचलित हैं- त्र तथा त्र। ये दोनों ही प्रयोग मान्य हैं।

(v) कई बार ‘क्र‘ तथा ‘कृ‘ को एक मानकर प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार की छूट मान्य नहीं है। क्र ‘क्‘ तथा ‘र‘ का संयुक्त रूप है। ‘कृ‘ क् तथा ‘ऋ‘ का संयुक्त रूप है।

(ङ) संस्कृत के संयुक्ताक्षरों को पुरानी शैली से लिखने की छूट है। उदाहरणार्थ-

        संयुक्त, चञ्चल, विछ्वान, वृद्ध, अङ्क, बुद्धि इत्यादि।

द्वित्व व्यंजन- दो समान व्यंजनों का एक साथ प्रयुक्त होना द्वित्व व्यंजन कहलाता है। जैसे-

  • इक्का, लुच्चा, कच्चा, सज्जन, उन्नति, उद्देश्य, थप्पड़, कट्टर, उत्तेजित, सुग्गा, लड्डू इत्यादि।

दिरुक्ति- दिरुक्ति का अर्थ है – दुहराना; एक ही उक्ति को दो बार उच्चरित करना। हिन्दी भाषा में द्विरूक्ति से शब्दों का निर्माण बड़ी संख्या में हुआ हैं। इसकी रचना सार्थक शब्दों की आवृत्ति से होती है। जैसेः- पानी-पानी, अपना-अपना, छोटे-छोटे, धीरे-धीरे इत्यादि।

शब्दकोश देखने का सही तरीका

  • शब्दकोश में पहले स्वर बाद में व्यंजन का क्रम आता है।
  • सब्दकोश में अनुस्वार ( -ं ) और विसर्ग ( : ) का स्वतंत्र वर्ण के रूप में प्रयोग नहीं होता, लेकिन संयुक्त वर्ण़ों के रूप में इन्हें अ आ …… ओ औ से पहले स्थान मिलता है, जैसे- कं कः क का कि की कु कू के कै को कौ।
  • शब्दकोश में पूर्ण वर्ण के बाद संयुक्ताक्षर का क्रम आता है, जैसे- कं कः क का ….. को कौ के बाद क्य, क्र, क्ल, क्व, क्ष।
  • शब्दकोश में क्ष त्र ज्ञ श्र का कोई पृथक् शब्द-संग्रह नहीं मिलता क्योंकि ये संयुक्ताक्षर होते हैं। अतएव इनसे संबंधित शब्दों को ढूंढ़ने के लिए इन संयुक्ताक्षरों के पहले अक्षर या वर्ण वाले खाने में जाना होता है, जैसे-यदि हमें क्ष (क् + ष) से संबंधित शब्द का अर्थ ढूँढ़ना हो तो हमें ‘क‘ वाले खाने में जाना होगा; इसी तरह त्र (त् + र) के लिए ‘त‘ वाले खाने, ज्ञ (ज् + ञ) के लिए ज वाले खाने तथा श्र (श् + र) के लिए श वाले खाने में जाना पड़ेगा।
  • ङ, ञ, ण, ड़, ढ़ से कोई शब्द शुरू नहीं होता इसलिए ये स्वतंत्र रूप से शब्दकोश में नहीं मिलते।

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हिंदी वर्णमाला स्वर और व्यंजन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न

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स्वर किसे कहते है ? (परिभाषा)

फेफड़ों द्वारा निःसृत हवा जब उच्चारण अवयवों का सहयोग पाकर अबाध गति अर्थात् बिना किसी रूकावट के मुख-विवर से बाहर आये, तब स्वर ध्वनियों का निर्माण होता है।

हिंदी वर्णमाला किसे कहते है ?

प्रत्येक भाषा की मूल ध्वनियों को लिखने के लिए कुछ ध्वनि-चिह्न निश्चित किए जाते हैं। उन ध्वनि-चिन्हों को ‘लिपि-चिन्ह या ‘वर्ण’ कहते हैं। ऐसे वर्ण़ों के व्यवस्थित समूह को ‘वर्णमाला’ कहते हैं ।

हिंदी वर्णमाला में कितने स्वर और व्यंजन होते है ? (swar and vyanjan)

हिंदी वर्णमाला में कुल 44 स्वर और व्यंजन होते है।

व्यंजन किसे कहते है ?

फेफड़ों द्वारा निःसृत जब यह हवा किसी न किसी स्तर पर रुकावट के साथ मुख-विवर से बाहर निकलती है, तब व्यंजन(vyanjan in Hindi) ध्वनियों का निर्माण होता है।

नमस्कार, मेरा नाम अजीतपाल हैं। मैंने हिंदी साहित्य से स्नातक किया है। मेरा शुरूवात से ही हिंदी विषय के प्रति लगाव होने के कारण मैंने हिंदी विषय के बारे में लेखन का कार्य आरभ किया। हाल फ़िलहाल में Pathatu एजुकेशन प्लेटफार्म के लिए लेखन का कार्य कर रहा हूँ।