व्यंजन संधि (Vyanjan Sandhi) संधि के भेद में से ही एक भेद जिसके बारे में हम इस लेख में जानेंगे। व्यंजन संधि से सम्बंधित
विभिन सवालो जैसे व्यंजन संधि किसे कहते हैं? व्यंजन संधि के उदाहरण (Vyanjan Sandhi ke Udharan) , भेद एंव परिभाषा इत्यादि के बारे में जानेंगे।
यहाँ व्यंजन संधि के ट्रिक्स (vyanjan sandhi trick) भी दिए गए है।
व्यंजन संधि में एक व्यंजन का किसी दूसरे व्यंजन से अथवा स्वर से मेल होने पर दोनों मिलनेवाली ध्वनियों में विकार पैदा होता है। यह विकार होता कैसे है, इसकी प्रक्रिया को समझना जरुरी है।
जब हम किसी स्वर अथवा व्यंजन का उच्चारण करते हैं तो मोटे तौर पर दो प्रयत्न होते हैं – एक तो मुंह के अंगों का संचालन होता है; जैसे-होठों का मिलना अलग होना (प फ ब भ म् तथा सभी स्वर ); जीभ का मुंह के अंदर अलग-अलग स्थानों पर जाना-आना जैसे-जीभ का ऊपर के दातों से लगकर उच्चारण करना (तु थ द ध न स के उच्चारण) ऊपर के दांतो के मसूड़ों से थोड़ा ऊपर तालु से स्पर्श कर उच्चारण करना (च छ, ज झ क श्, य् इ ई ए) , जीभ का तालु के सबसे ऊपर के भाग मूर्धा से लगकर उच्चारण करना, (ट्ट् ड् ढ् ण, र छ में) तथा जीभ के मूल भाग का कंठ को बंद करके उच्चारण करना (क्, ख् ग् घ् ङ्) आदि। दूसरा प्रयत्न हमारे गले में स्थापित स्वर-तंत्रियों (Vocal cords) के कंपित होने से होता है।
ये स्वर-तंत्रियाँ सभी स्वरों में और प्रत्येक वर्ग के तीसरे, चौथे, पाँचवें व्यंजन (ग, घ, ङ् ज् झ् बडदण् द् ध् न् ब् भ म्) में तथा य र ल व् ह में कंपित होती हैं इसलिए इन ध्वनियों को घोष या सघोष कहा जाता है तथा शेष ध्वनियों (क, ख च छ आदि) को अघोष कहा जाता है। व्यंजन संधि में जब अलग-अलग-स्थान से उच्चारित होने वाले व्यंजन एवं स्वरों का मेल होता है या घोष और अघोष ध्वनि का मेल होता है तो फिर एक निश्चित प्रकार का ध्वनि-परिवर्तन होता है जिसे हम भाषावैज्ञानिक ढंग से समझ सकते हैं, और इस तरह इन संधियों को रटने के स्थान पर तार्किक ढंग से समझा जा सकता है।
व्यंजन संधि की परिभाषा (Vyanjan Sandhi ki Paribhasha)
व्यंजन के स्वर अथवा व्यंजन के मेल से उत्पन्न विकार को व्यंजन संधि (Vyanjan sandhi in Hindi )
कहते हैं।
व्यंजन संधि के भेद (Vyanjan Sandhi Ke Bhed /Prakar)
1. घोष व्यंजन संधि (Ghosh Vyanjan Sandhi )
यदि किसी अघोष व्यंजन के बाद कोई घोष व्यंजन या कोई स्वर आये तो वह अघोष व्यंजन अपने घोष रूप में बदल जाता है।
अघोष (वर्गीय व्यंजन का प्रथम व्यंजन क्, च्, ट्, त्, प्) + सघोष (पंचमाक्षर व ‘ह‘ को छोड़कर) = सघोष (वर्गीय के तीसरे व्यंजन में)।
वर्गीय व्यंजन के प्रथमाक्षर (क्, च्, ट्, त्, प्) के बाद यदि सघोष व्यंजन (अनुनासिक/पंचमाक्षर व ‘ह‘ को छोड़कर) अर्थात् कोई स्वर/वर्गीय व्यंजन का तीसरा, चौथा व्यंजन/य, र, ल, व हो तो क्, च्, ट्, त्, प् अपने वर्ग के तीसरे व्यंजन (ग्, ज्, ड्, द्, ब्) में बदल जाते हैं।
उदाहरण :-
क् + अ = ग
दिक् + अंत = दिगंत
दिक् (दिशा) + अंबर = दिगंबर
क् + ई = गी
वाक् + ईश्वरी = वागीश्वरी (सरस्वती)
वाक् + ईश = वागीश (बृहस्पति)
क् + ए = गै
प्राक् + ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक
क् + ग = ग्ग
दिक + गज = दिग्गज
दिक् + गयंद = दिग्गयंद
क् + ज = ग्ज
वाक् + जाल = वाग्जाल
सम्यक् + ज्ञान = सम्यग्ज्ञान
क + व = ग्व
ऋक् + वेद = ऋग्वेद
दिक् + वधू = दिग्वधू
वाक + विदग्धता = वाग्विदग्धता
क् + ह = ग्ह
दिक् + हस्ती = दिग्हस्ती
च् + अ = ज
अच् (हस्व स्वर) + अंत = अजंत
ट् + अ = ड
षट् + अंग = षडंग
षट् + अभिज्ञ = षडभिज्ञ
ट् + आ = डा
षट् + आनन = षडानन
ट् +ग = ड्ग
षट् + गुण = षड्गुण
ट् +द = ड्द
षट् + दर्शन = षड्दर्शन
ट् + य = ड्य
षट् + यंत्र = षड्यंत्र
2. अघोष व्यंजन संधि :-
अघोष व्यंजन संधि में केवल द् व्यंजन का उदाहरण मिलता है जो अघोष हो जाता है। घोष व्यजंन द के बाद यदि अघोष व्यंजन क, त, थ, प, स आदि आए तो पहले वाला घोष व्यंजन द् अपने अघोष रूप त् में बदल जाता है ।
उदाहरण :-
द् + क = त्क
शरद् + काल = शरत्काल
विपद् + काल = विपत्काल
तद् + क्षण = तत्क्षण
उद् + कीर्ण = उत्कीर्ण
द् + त = त
उद् + तप्त = उत्तप्त
उद् + तम = उत्तम
द् + थ = त्थ
उद् + स्थान = उत्थान
द् + प = त्य
तद् + पर = तत्पर
उद् + पन्न = उत्पन्न
3. अनुनासिक व्यंजन संधि
अनुनासिक (नाक से बोले जाने वाले ) और निरनुनासिक (मुँह से बोले जानेवाले) व्यंजनों के परस्पर निकट आने से या तो अनुनासिक व्यंजन निरनुनासिक व्यंजन को अनुनासिक व्यंजन में बदल देता है या अनुनासिक व्यंजन का उच्चारण-स्थान बदल जाता है।अनुनासिक व्यंजन संधि (Anunashik Vyanjan Sandhi ) के दो रूप हैं उत्तर-अनुनासिक व्यंजन संधि
एवं पूर्व-अनुनासिक व्यंजन संधि।
(I) उत्तर-अनुनासिक व्यंजन संधि( Utar Anunashik Vyanjan Sandhi) :- यदि किसी वर्ग के पहले अथवा तीसरे व्यंजन (क ट त द ) के बाद (उत्तर) कोई अनुनासिक व्यंजन (न् म्) आए तो वह पहला व्यंजन अपने अनुनासिक व्यंजन (क्→ड , ट्→ ण् आदि में) बदल जाता है। यही उतर-अनुनासिक व्यंजन संधि है।
उदाहरण :-
क् + न = ङ्न
दिक् + नाथ = दिङ्नाथ
क् + म = ङ्म
वाक् + मय = वाङ्मय
दिक् + मूढ़ = दिङ्मूढ़
त् + न = न
बृहत् + नल = बृहन्नल (अर्जुन)
सत् +- निधि = सन्निधि
बृहत् + नेत्र = बृहन्नेत्र
त् + म = न्म
जगत् + मोहिनी = जगन्मोहिनी
बृहत् + माला = बृहन्माला
द् + न = न
पद् + नग = पन्नग (साँप)
उद् + निद्र = उन्निद्र
जगत् + माता = जगन्माता
(II) पूर्व अनुनासिक व्यंजन संधि- पूर्व अनुनासिक व्यंजन संधि में पहला अनुनासिक व्यंजन (केवल म व्यंजन के ही उदाहरण मिलते है) होता है तथा दूसरा निरनुनासिक होता है। इसमें म् का उच्चारण स्थान बदल जाता है। यदि पहल अनुनासिक व्यंजन म् आए और बाद में चारों निरनुनासिक व्यंजनों (क, ग, घ, च, ज कोई आए तो म् बादवाले व्यंजन के अनुनासिक रूप अर्थात् उसके पाँचवा व्यंजन में बदल जाता है जाता है।
उदाहरण :-
अलम + कार = अलङ्कार (अलकार)
किम् + कर = किङ्कर (किंकर)
दीपम् + कर = दीपङ्कर (दीपंकर)
अहम् + कार = अहङ्कार (अहंकार)
सम् + कल्प = सङ्कल्प (संकल्प)
शम् + कर = शडकर (शंकर सम् + कर = सङ्कर (संकर)
शुभम् + कर = शुभकर (शुभंकर)
भयम् + कर = भयङ्कर (भयंकर)
सम् + गम = सङ्गम (संगम)
सम् + गत = सङ्गत
4. त् /द् की संधि-
त् एंव द् वर्ण बहुत लोचदार व्यंजन है ये किसी अन्य व्यंजन के साथ मिलने पर उसका तुरंत प्रभाव ले लेते है। त् एंव द् के उच्चारण में जीभ ऊपर के दन्त का स्पर्श करने आती है और फिर यदि उसे अन्य व्यंजनों उच्चारण के लिए मुँह में अन्य स्थानों (तालु, मूर्धा) पर भी जाना हो तो ऐसी स्थिति में जीभ त् /द् का उच्चारण करने के लिए दांतो का स्पर्श करने के बजाय वह सीधे ही दूसरे व्यंजन के उच्चारण पर चली जाती है इससे बादवाले व्यंजन के अनुसार त् /द् के अनेक रूप बन जाते है।
(क) त्/द् + श = च्छ।
यदि त्/द् के बाद श् हो तो त् – च् में तथा श – छ् में बदल जाता है।
त दन्त्य है और श तालत्य। श् के प्रभाव से त् अपना दन्त्य रूप छोड़कर तालव्य रूप च् प्राप्त कर लेता है और च् के प्रभाव से श् (महाप्राण) छ् में बदल जाता है। जैसे-
सत् + शासन = सच्छासन
सत् + शास्त्र = सच्छास्त्र
उत् + श्वास = उच्छ्वास
उत् + श्वसन = उच्छ्वसन
शरत् + शशि = शरच्छशि
जगत् + शान्ति = जगच्छान्ति
(ख) ‘त्‘ के बाद यदि ल हो तो त्, ल् में बदल जाता है; जैसे-
उत् + लास = उल्लास
उत् + लेख = उल्लेख
तत् + लीन = तल्लीन
(ग) ‘त्‘ के बाद यदि ज्, झ् हो तो त्, ज में बदल जाता है; जैसे-
सत् + जन = सज्जन
विपत् + जाल = विपज्जाल
जगत् + जननी = जगज्जननी
(घ) ‘त्‘ के बाद यदि ट्, ड् हो ता त्, ड् में बदल जाता है; जैसे-
बृहत् + टीका = बृहट्टीका
(ङ) ‘त्‘ के बाद यदि च, छ हो तो त् का च् हो जाता है;
जैसे-उत् + चारण = उच्चारण
(च) ‘त्‘ के बाद यदि ह हो तो त् के स्थान पर द् और ह के स्थान पर ध् हो जाता है;
जैसे-
तत् + हित = तद्धित
5. मूर्धन्य व्यंजन संधि-
संस्कृत में संधि(vyanjan sandhi in sanskrit)की प्रक्रिया में कुछ दंत्य ध्वनियों (त. थ.न. स) के मूर्धन्य (ट, ठ, ण, ष) बन जाने की प्रवृत्ति है। दंत्य ध्वनियों का यह मूर्धन्यीकरण तब होता है जब उन दंत्य ध्वनियों के पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ (ष ड) या मूर्धन्य के समीप की ध्वनियाँ (इ, ऋ, र) आती हैं। यहाँ अलग-अलग व्यंजनों के मूर्धन्यीकरण की संधियाँ दी जा रही हैं।
(क) न् का मूर्धन्यीकरण – ण्। यदि मूर्धन्य इ, ऋ, र, ष के बाद न हो तो दन्त्य – न, मूर्धन्य – ण में बदल जाता है।
जैसे-
कृष् + न = कृष्ण
भूष + न = भूषण
प्र + न = प्रण
प्र + नाम = प्रणाम
विष् + नु = विष्णु
पोष + न = पोषण
(ख) स का मूर्धन्यीकरण – ष यदि स से शुरू होने वाले व्यंजन के पहले इ या उ स्वर आते हैं तो दन्त्य-स, मूर्धन्य-ष में बदल जाता है।
जैसे-
नि + सेध = निषेध
सु + सुप्त = सुषुप्त
वि + सम = विषम
अभि + सेक = अभिषेक
अनु + संगी = अनुषंगी
6. स् का तालव्यीकरण (श) एवं मूर्धन्यीकरण (ष)
संस्कृत में दुस् और निस् उपसर्ग माने गए हैं (न कि दुः एवं नि:)। यदि ये दंत्य ध्वनिये के पहले लगते हैं, तो संधि नहीं मानी जाएगी क्योंकि इनके दुस् एवं निस् रूप ही रहते हैं। अर्थात्-दुस्/निस् + दंत्य ध्वनियाँ = दुस्/निस्-ये उदाहरण संधि के नहीं है. क्योंकि यहाँ कोई ध्वनि-परिवर्तन नहीं हो रह, ये संयोग के कुछ उदाहरण –
दुस् + साहस = दुस्साहस
दुस् + साध्य = दुस्साध्य
निस् + स्वार्थ = निस्स्वार्थ
दुस् + तर = दुस्तर
निस् + संकोच = निस्संकोच
निस् + सहाय = निस्सहाय
दुस् + सह = दुस्सह
निस् + सृत = निस्सृत निस् + संदेह = निस्संदेह
7. व्यंजन आगम संधि
कुछ स्थितियों में दो शब्दों का मेल होने पर उनके बीच कुछ व्यजनों (च, स्/ष) का आगम हो जाता है, व्यंजन आगम से होनेवाला ध्वनि-परिवर्तन व्यंजन आगम संधि (aagam Vyanjan Sandhi ) कहलाता है-
(क) च् का आगम – यदि प्रथम शब्द के अन्त में स्वर हो तथा दूसरे शब्द के शुरू में छ व्यंजन आए तो छ से पहले च् का आगम हो जाता है।
जैसे-
परि + छेद = परिच्छेद
आ + छादन = आच्छादन
स्व + छंद = स्वच्छंद
छत्र + छाया = छत्रच्छाया
वि + छेद = विच्छेद
प्रति + छाया = प्रतिच्छाया
अनु + छेद = अनुच्छेद
(ख) स्/ष् का आगम – यदि सम् उपसर्ग के बाद कृ धातु से बने शब्द आए तो दन्त्य – स का आगम हो जाता है।
जैसे-
सम् + कृति = संस्कृति
सम् + करण = संस्करण
व्यंजन संधि के उदाहरण (Vyanjan Sandhi ke Udaharn)
यहाँ निचे महत्वपूर्ण व्यंजन संधि के उदाहरण (Vyanjan Sandhi Ke Udhaharn) दिए गए है।
- वाक् + जाल = वाग्जाल
- वाक् + ईश = वागीश
- उत् + अय = उदय
- जगत् + ईश = जगदीश
- अच् + अन्त = अजन्त
- दिक् + विजय = दिग्विजय
- सत् + आचार = सदाचार
- उत् + घाटन = उद्घाटन
- भगवत् + गीता = भगवद्गीता
- सत् + वंश = सद्वंश
- जगत् + अम्बा = जगदम्बा
- दिक् + भ्रम = दिग्भ्रम
- सत् + इच्छा = सदिच्छा
- सत् + गति = सद्गति
- षट् + आनन = षडानन
- भवत् + ईय = भवदीय
- षट् + अंग = षडंग
- कृत + अन्त = कृदन्त
- अप् + द = अब्द
- उत् + घाटन = उद्घाटन
- तत् + भव = तद्भव
- वाक् + मय = वाङ्मय
- उद् + नत = उन्नत
- अच् + अन्त = अजन्त
- तद् + मय = तन्मय
- षट् + मास = षण्मास
- जगत् + नाथ = जगन्नाथ
- श्रीमत् + नारायण = श्रीमन्नारायण
- उत् + नत = उन्नत
- पद् + नग = पन्नग
- जगत् + माता = जगन्मात
- उत् + नति = उन्नति
- अप् + मय = अम्मय
- षट् + मुख = षण्मुखअहम् + कार = अहङ्कार/अहंकार,
- सम् + गम = सङ्गम/संगम
- पम् + चम = प×चम/पंचम
- सम् + तोष = सन्तोष/संतोष
- सम् + कलन = सङ्कलन/संकलन
- किम् + चित = किञ्चित्/किंचित्
- सम् + चय = स×चय/संचय
- सम् + चालन = स×चालन/संचालन
- अलम् + कार = अलङ्कार/अलंकार
- सम् + कर = सङ्कर/संकर
- तीर्थम् + कर = तीर्थङ्कर/तीर्थंकर
- दिवम् + गत = दिवङ्गत/दिवंगत
- दम् + ड = दण्ड/दंड
- सम् + तुष्ट = सन्तुष्ट/संतुष्ट
- सम् + देश = सन्देश/संदेश
- चिरम् + जीव = चिर×जीव/चिरंजीव
- सम् + धि = सन्धि/संधि
- सम् + न्यासी = सन्न्यासी/संन्यासी
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